संतुष्टि मन की अति गहराई में व्याप्त अति सूक्ष्म तथा प्रभावशाली अदृश्य शक्ति है जो सभी मनुष्यों में स्वयं के अंतर्मन में निहित होती जिसे भौतिक जगत में खोजते हुए कभी प्राप्त नही किया जा सकता, इसे मात्र अपने अंदर ही खोजने की आवश्यकता है। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह एक मृग कस्तूरी की सुगंध को महसूस करते हुए खोजता रहता पर वह उसे नही प्राप्त होती जो उसके अंदर होता है।
संतुष्टि क्या है ? What is satisfaction ? | अपने जीवन मे संतुष्टि कैसे मिले |
संतुष्टि क्या है ? What is satisfaction ? | अपने जीवन मे संतुष्टि कैसे मिले
संतुष्टि प्राप्त करने जैसा कुछ नही है यह तो अनंत विशाल अंतर्मन में पहले से मौजूद है बस इसको महसूस करने की आवश्यकता है। सन्तुष्टि आंतरिक प्रशन्नता का एक रूप भी है। यह माना जाता है कि यदि मनुष्य अंदर से प्रसन्न है तो वह संतुष्ट है पर फिर भी वो पूरी तरह संतुष्ट है की नहीं ये तो वही जान सकता है।
एक व्यक्ति की सभी इच्छाएं कभी पूरी नही होती पर किसी एक इच्छा के पूरी होने से वह अपने आप को संतुष्ट महसूस कर सकता है। और मन तो इच्छाओं से भरा पड़ा है। इसके इलावा इस संसार मे सबकुछ मिल जाने के उपरान्त भी संतुष्टि नही मिल सकती जबतक स्वयं में इसकी खोज न कि जाए। सन्तुष्टि परम शक्ति के सदृश है जिसको पाने के लिए न जाने कितने सामान्य मनुष्य संत, महात्मा,और सन्यासी बन गए पर शायद ही उसे प्राप्त कर पाएं हों क्या पता प्राप्त कर भी लिया हो।
अपने जीवन मे संतुष्टि कैसे मिले शायद ही इसका उत्तर किसी को संतुष्ट करें परन्तु फिर भी हम इसे संछिप्त रूप में समझने का प्रयास कर सकते हैं।
सामान्यतः एक मनुष्य के पास यदि समय,धन,यश ( नाम,पद, प्रतिष्ठा) अच्छा शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य ( निरोग ), सुरक्षा और ज्ञान ( बुद्धि, बुद्धिमता, समझ, अनुभव, सकारत्मक सोंच, सकरात्मक द्रष्टिकोण आदि ) ये सभी हैं तो यदि वह चाहे तो अपने जीवन मे संतुष्ट हो सकता । परन्तु किसी एक के अभाव में वह संतुष्ट नही हो सकता भले ही सबके सामने वह अपने आप को संतुष्ट प्रदर्शित करे।
कोई संतुष्ट है या नही यह तो वही जान सकता है और स्वयं के संतुष्टि होने का किसी अन्य को कोई प्रमाण भी नही दे सकता की वह वास्तव में संतुष्ट है। क्योंकि यह अदृश्य आंतरिक एहसास है।
कोई संतुष्ट है या नही यह तो वही जान सकता है और स्वयं के संतुष्टि होने का किसी अन्य को कोई प्रमाण भी नही दे सकता की वह वास्तव में संतुष्ट है। क्योंकि यह अदृश्य आंतरिक एहसास है।
संतुष्टि इच्छाओं और परिवर्तन पर निर्भर है।
आदि अनादि काल से यह संसार परिवर्तनशील रहा है । मानव सभ्यता के शुरुआत से ही वह खोजी और जिग्यासु प्रवर्ती का रहा है इसी के चलते हम आज भी एक सतत परिवर्तन की धारा में चल रहे हैं जो शायद ही कभी रुके, क्योंकि मनुष्य का यह गुण व स्वभाव है कि वह अपनी असीम इच्छाओं की पूर्ति हेतु इस संसार मे अपने जीवन को सरल सहज और बेहतर से बेहतर बनाने के लिए निरन्तर परिवर्तन करता चला आ रहा है इसके चलते वह परिवर्तन करते रहने के लिए प्रेरित होता रहता है। वह अपने जीवन मे वो सब प्राप्त करना चाहता है जिससे वह अपना जीवन अच्छे से जी सके और सन्तुष्ठ रहे।
विज्ञान,अध्यात्म,धर्म,शिक्षा, ज्ञान,चिकित्सा,आदि सभी का एक ही उद्देश्य है मानव जीवन व जीवन शैली को उच्चतम आदर्श स्तर तक ले जाना और इस संसार मे बेहतर से बेहतर सुख सुविधाओं का सकरात्मक रूप से सृजन करना जिससे मनुष्य अपना जीवन मानसिक,शारीरिक, आर्थिक,सामाजिक व भौतिक स्तर पर बिना किसी असुविधा के जी सके, और अपने जीवन मे सन्तुष्ट हो सके।
चूँकि परिवर्तन संसार का नियम है जो निरन्तर होता रहेगा इसलिए सतत परिवर्तन ही आने वाले समय मे विकास का आधार है। जिसमे नए अविष्कार,खोजें, रचनात्मक कार्य,नवीन विचार, आर्थिक दृष्टि से आय के स्रोतों की खोज आदि आदि होता रहता है । पर इस परिवर्तन कि अंतिम सिमा का पता नही, कुल कितनी इच्छाएं और किस स्तर तक हो सकती हैं का पता नही, तथा उच्चतम अंतिम बिंदु क्या है ? जहाँ पर जाकर यह परिवर्तन रुक सके है, जिस पर पहुँच कर समस्त मानव जगत पूरी तरह संतुष्ट हो सके कि बस…, अब हमारे द्वारा इस जगत में वो सब अर्जित किया जा चुका है जिससे हम अपने जीवन को बेहतर जी सकते हैं। यह तो बात हो गई सामूहिक तौर पर ।
अब हम आते हैं व्यक्तिगत तौर पर
इच्छओं की पूर्ति हेतु हमें परिवर्तन तो करना पड़ेगा । जो यह सांसारिक परिवर्तन है वह सभी जीवों विशेषकर मनुष्यों को उनके अलग अलग व्यक्तिगत जीवन को भी आंशिक रूप से प्रभावित करता है जिसे हम समझ नही पाते और हम धीरे धीरे इस परिवर्तन में शामिल हो जाते हैं और अपने जीवन मे भी लगातार परिवर्तन चाहने लगते हैं बगैर इसकी आवशयक सीमा तय किये और जिससे बाहर आना भी मुश्किल हो जाता है तो ऐसे में हम अपने आप को पूरी तरह कैसे संतुष्ट करें।
मानव हृदय,मन में असीमित, अनन्त व अनियंत्रित इच्छाओं के रहने से जीवन मे परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है ऐसे में संतुष्टि का पूर्ण रूप में प्राप्त होना या एहसास होना वास्तव में कठिन जान पड़ता है।
एक प्रकार में सन्तुष्टि क्षणिक समय काल मे प्राप्त तो हो सकती पर दूसरे प्रकार में यह दीर्घ काल समय तक नही प्राप्त होती । दूसरे शब्दों में कहें तो सन्तुष्टि क्षण भर की तो हो सकती है पर यह दीर्घकालिक नही हो सकती ।
निष्कर्षतः हमे प्रतीत होता है कि यदि किसी भी मनुष्य को अपनी ज़िंदगी मे संतुष्ट होना है तो उसे अपनी इच्छाओ की संख्या और स्वयं के जीवन मे परिवर्तन की सीमा निर्धारित करनी पड़ेगी। तभी संतुष्टि को प्राप्त या महसूस किया जा सकता है।
संतुष्टि न तो समस्त भौतिक सुख साधनों के मिलने से मिलती है और न ही जीवन मे सभी आवश्यकताए व इच्छाओं के पूर्ण होने से मिलती है यह तब प्राप्त हो सकती है जब हम स्वयं में संतुष्ट रहने का निर्णय कर लें साथ ही अपनी इच्छाओं की संख्या शून्य कर लें और परिवर्तन करते हुए जहाँ तक जीवन मे पहुँचे हैं उसके बाद कोई परिवर्तन न चाहें ।
अतः हम स्वयं से जब ये कहें कि हमारी समस्त इच्छापूर्ति हो चुकी है और अब हम बिना किसी परिवर्तन के अपना जीवन प्रशन्नता के साथ आनंदित होते हुए बिताने के लिए तैयार हैं। शायद तब हम अपनी ज़िंदगी मे संतुष्ट हो सकते हैं।
" जितना है उसमे सन्तुष्ठ रहो " का अर्थ है कि वर्तमान में जो भी है हमारे पास पहले उसमे हम आनंद का अनुभव करें। मन से प्रसन्न रहें और जो इच्छाएँ हैं उनको अपने ऊपर हावी न होने दे क्योंकि इच्छाएँ हमारे वश में हो सकती हैं पर जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओ को तो पूरा करना ही पड़ेगा क्योंकि ये जीवन निर्वाह में मूल रूप से जीवन चलने के दौरान आगामी जन्म लेती रहती हैं ।
मेरे विचार अनुसार हमे अपने जीवन मे प्राथमिक आवश्यकताओं, इच्छाओं, और परिवर्तनों से सन्तुष्टि को नही जोड़ना चाहिए। क्योंकि जब तक जीवन है तब तक आवश्यकताएँ ,इच्छाएं ,और परिवर्तन का होना लगा रहेगा।
उम्मीद है आपको यह उत्तर शायद सन्तुष्ठ करता हो । अन्य किसी भी त्रुटी के लिए अग्रिम क्षमा चाहूँगा।
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